रायगढ़। नौ दिन चले अढ़ाई कोस” की कहावत रायगढ़ के आदिवासी विकास विभाग पर एकदम सटीक बैठती है। अनुभागीय दंडाधिकारी (एसडीएम) घरघोडा द्वारा 5 मई को पत्र कर अनुभाग स्तरीय समिति के गठन का निर्देश दिया गया था, ताकि सामुदायिक और व्यक्तिगत वन अधिकार के तहत आवेदनों का निराकरण हो सके। लेकिन, एक माह से अधिक समय बीत जाने के बावजूद आदिवासी विकास विभाग रायगढ़ इस समिति का गठन करने में नाकाम रहा है। इस सुस्त रवैये के चलते आदिवासी क्षेत्रों के ग्रामीण अपने हक के पट्टे प्राप्त करने के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत आदिवासी और वनवासी समुदायों को सामुदायिक और व्यक्तिगत वन अधिकार पट्टे प्रदान किए जाते हैं, जो उनकी आजीविका और जमीन पर अधिकार सुनिश्चित करते हैं। लेकिन रायगढ़ में विभाग की लेटलतीफी ने इस प्रक्रिया को ठप कर दिया है। ग्रामीणों का कहना है कि वे बार-बार कार्यालयों के चक्कर काट रहे हैं, लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हो रही।
स्थानीय आदिवासी नेता राम प्रसाद ने गुस्सा जाहिर करते हुए कहा, “यह विभाग आदिवासियों के कल्याण के लिए बना है, लेकिन यहाँ तो हमारी समस्याओं को अनदेखा किया जा रहा है। समिति गठन में इतनी देरी क्यों? क्या आदिवासियों के हक इतने मामूली हैं कि महीनों इंतजार करना पड़े?”
आदिवासी विकास विभाग की इस निष्क्रियता ने न केवल प्रशासनिक अक्षमता को उजागर किया है, बल्कि उन आदिवासी परिवारों की उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया है, जो अपने अधिकारों के लिए वर्षों से संघर्षरत हैं। ग्रामीणों ने मांग की है कि विभाग तत्काल समिति का गठन करे और लंबित आवेदनों का निराकरण शुरू करे।
विभागीय अधिकारियों से इस संबंध में कोई ठोस जवाब नहीं मिल सका है। अब सवाल यह उठता है कि क्या आदिवासी विकास विभाग रायगढ़ अपनी जिम्मेदारी निभाने में गंभीर है, या यह सिर्फ कागजी खानापूरी तक सीमित रह जाएगा? ग्रामीणों की नजर अब इस बात पर टिकी है कि विभाग कब तक इस “अढ़ाई कोस” की रफ्तार से आगे बढ़ेगा